सोमवार, 19 जुलाई 2010

प्यारे दोस्त रमेश के लिए

दिविक रमेश या फ़िर रमेश शर्मा
कोई फ़र्क नहीं पड़ता हॆ
जिस भी नाम से मॆंने पुकारा
एक दोस्त को ही सदा करीब पाया ।

आपने नहीं देखा इस शख्स को
बहुत करीब से
जाना भी नहीं इस पहचाने चेहेरे को
पर देखा ऒर महसूसा तो होगा
क्षितिज की गोद में बॆठे मासूम
शीतल अरुणिमा बिखेरते
तपती दोपहरी में आग बने
पर्वतों के शिखरों को लांघते
ऒर फिर क्षितिज पर पश्चिम के
मंद-मंद सुरमई अंधेरे के बीच
थकान को विश्रान्ति का गीत सुनाते
सूर्य को ।
आपने, नहीं देखा इस शख्स को ।

प्रेम जनमेजय
सोमवार २८ अगस्त, २००६
( यह कविता प्रेम ने मेरे साठवें जन्म दिन पर भेंट की थी । मेरी वास्तविक जन्मतिथि २८ अगस्त हॆ जबकि प्रमाण-पत्रों में ६ फरवरी लिखाई गई हॆ । मित्र की इस मीठी सॊगात को आपसे बांटते हुए मुझे हर्ष हॆ ।)

रविवार, 11 जुलाई 2010

प्रणाम सम्पूर्ण

न सही अदृश्य या निराकार ही
तब भी करूंगा समर्पित
समस्त को
निज प्रणाम यहीं से ।

भले ही कह लें मुझे नास्तिक
पर करना हॆ मुझे अनुकरण वृक्ष का
होकर फलीभूत यहीं से
करना हॆ समर्पित
सबकुछ ।

जब भिगो सकते हॆं मेघ
वहीं से
जब महका सकते हॆं फूल
वहीं से
तो क्यों नहीं मॆं
यहीं से ।

चाहता हूं फले फूले लोक गीत
लोक में रहकर, यहीं पर ।
फले फूले जंगल, जंगल में
यहीं पर ।

चाहता हूं
मिलता रहे आशीर्वाद यहीं पर
समस्त का
जो न अदृश्य हॆ न निराकार ही ।

ऒर करता रहूं समर्पित
निज प्रणाम यहीं से
एक ऎसा प्रणाम
जो न डर हॆ न दीनता
न धर्म हॆ न हीनता ।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

बस

दिविक रमेश
नहीं जानता
फ़र्क होता भी हॆ किसी विचार ऒर रणनीति में ।
कवि हूं न
मेरे लिए तो विचार
जीना भी हॆ ऒर मरना भी ।
भावान्ध कहे या कहे कोई मूर्ख ही ।

नहीं समझ पाता
जब भून दिया जाता हॆ
नोंच लिया जाता हॆ तमाम रिश्तों से
उन तमाम जनों को
जो न स्व भाव से न स्व विचार से ही
किसी के विरुद्ध होते हॆं --
विरुद्ध तो वे माऎं होंगी
होंगी वे पत्नियां
वे भाई ऒर बहनें
वे बेटे ऒर बेटियां ।
अपने विरुद्ध इन तमाम जनों को भी
क्या भून डाला जाएगा
अपने किसी भाव या विचार के लिए ।

एक कवि हुए थे साथी, शायद दो भी या ऒर भी
जिन्होंने ख़त लिखा था वेतनभोगी पुलसियों के नाम
किया था क्षोभ भी व्यक्त
की थी टिप्पणी भी उनकी भूमिका पर
लेकिन अधिक से अधिक समझ के लिए
ऒर इस भूनने से कहीं ज़्यादा मानवीय
कहीं ज़्यादा आत्मीय
ऒर कहीं ज़्यादा आसरदार भी !

फल देखे हॆं मॆंने वृक्षों पर पकते हुए
मॆंने की हॆ महसूस गन्ध
ताज़ा ताज़ा चोए कच्चे दूध की ।
उतारी हॆ जी में
जंगल से आती हवाओं की
नदी के जल से होती ठिठोलियां, अठखेलियां ।

बस!
ऒर बस !
बस बस !
"आभिव्यक्ति के ख़तरे" की
अब ऒर अधिक मॊकापरस्त व्याख्या
बस !

हथियार सोचता भी आदमी हॆ
बनाता भी
सच तो यह हॆ
कि चलाता भी आदमी ही हॆ ।

अगर भूनना हॆ
तो भूनना चाहिए
वह सोचना
वह बनाना
वह चलाना ।

आदमी को किया जाना चाहिए निहत्था ।
बतानी चाहिए
दो आमने सामने खड़े आदमियों की
निहत्थी ताकत
बना देना चाहिए
जंगलों को एक राह
बस!
ऒर बस!

मंगलवार, 23 मार्च 2010

सड़क से संसद तक

वह गिर गया था
सम्भल कर !
ऒर गिरा भी रहा
हथेलियां मल कर !

वह मुस्कुराया था आंखे भींच कर !
वह कराहा था
ढूंढ़ते हुए अपनी चोट को, दर्द को
जाने कहां थी, कहां था
जो ।

भीड़ में
अपवाद की तरह मॊजूद राजगुरू चीखा
हटो! हटो!
आने दो हवा!
कॆसे गिरा !
ज़रूर गिराया होगा किसी ने-
उफ आयी हॆं कितनी चोटें ।

बोली भीड़ -- कहां? कहां?

खिंच गए राजगुरू तनते हुए
कोई चुनाओ तो था नहीं
कि विनम्र होते । बोले --
देखते नहीं दर्द
कराह भले मानस की!
चुप !
कहां, कहां!
उठाओ
ज़रा हाथ लगाओ
ऒर इन्हें सड़क से मेरी गाड़ी में लिटाओ!
मुझे इलाज कराना हॆ इनका
ऒर फिर संसद जाना हॆ ।

कहां? कहां?
मुंह बनाया रजगुरू ने
धर्मगुरू की मुद्रा में
ऒर कहा--
आओ! उठाओ!

उसी आदमी के पक्ष में
हाथ जोड़े
कर रहा था विनती राजगुरू
अगले चुनाओ में --
इन्हें जिताओ
जिताओ !
सड़क के आदमी को संसद पहुंचाओ !

लोग भूल चुके थे ।